Sunday, November 18, 2007
चन्द नग्में ~ मेरे अपने लिखे (३)
एक दिन तो ऐसा आएगा, जब सुबह होगी महफ़िल से,
जब सुबह होगी महफ़िल से जब शाम धलेगी महफ़िल से
जब शमां जलेगी महफ़िल में और राग पतंगे गायेंगे,
जब राग पतंगे गायेंगे परवाने वारे जायेंगे
जब रात गुलों से महकेगी, जब वो भी मय से बहकेगी,
जब चांदनी तन को जलायेगी, जब मरहम वो ही जलायेगी
जब मरहम वो ही लगायेगी, तब जलन और बढ़ जायेगी,
एक दिन तो ऐसा आएगा, जब सुबह होगी महफ़िल से,
चन्द नग्में ~ मेरे अपने लिखे (२)
When I see a new -new girl,
new-new girl a pretty love bird,
I think more instead of work,
Sometimes think her a perl,
but again think no simple girl,
sometimes flower, sometimes throne,
sometime beauty, sometime prong
after a timewhile, nothing around
I see, I was very wrong,
When I see a new-new girl,
New-new girl a pretty love bird.....
चन्द नग्में ~ मेरे अपने लिखे (१)
ग़ज़ल
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इस जहाँ में नहीं तो उस जहाँ में ही सही,
पाकर रहेंगे हम तुझे इस दम नहीं तो फिर सही ।
कर ही दिया है तूने जब इन्कार तो ये ही सही,
बदलेगी ये इकरार में इस वक्त नहीं उस वक्त सही ॥
--
पा न सके हम तुझे तेरे गम मिले गम ही सही
ज़हर भरे इन जामों में इक बूँद मुहब्बत की न सही,
पी लेंगे हम इन जामों को इक बार नहीं सौ बार सही
--
भड़की नहीं है आग मुहब्बत की तो न सही,
चिंगारी अभी तक बाकी है तेरे दिल में नहीं मेरे दिल में सही
चाहत में मराहमों की मिले ज़ख्म तो ये ही सही,
ये ज़ख्म रुलायेंगे तुझे इस वक्त नहीं उस वक्त सही ॥
--
रो रहे हैं हम औ' तुझको लगे है नज्म तो ये नज्म सही,
गुनगुनाओगे इसे इस बज्म में नहीं उसमें सही
रोओगे जार-जार इस आँख नहीं उस आँख सही,
रुखसत करोगे अश्क से इस दम नहीं उस दम सही
Saturday, September 22, 2007
ये प्राँपर्टी डीलर भैये
कुछ दिनों से अचल सम्पत्ती के फ़ेर में पड़े थे । ये कोशिश कर रहे थे कि कोई मकान क जुगाड़ हो जाये, जिससे ये रोज-रोज मकान बदलने का झंझट और बड़े-बुज़ुर्गों की रोज-रोज की "मकान ले लो, घर बना लो " की नसीहतों से चैन मिले । भगवत्कृपा से इतना हो गया है कि घर के बारे में सोच भी सकते हैं । तो साहब, बस हर शनिवार और रविवार घर और मकान के नाम हो गया; गाज़ियाबाद में वसुन्धरा से लेकर और ग्रेटर नोएडा तक जाने कितने चक्कर लगे कितने लोगों से मिले । इसी क्रम में एक विशेष किस्म के लोगों से मुलाकात होने लगी जिन्हें ये चिट्ठा मैंने समर्पित किया है अर्थात प्राँपर्टी डीलर ।
जब हमारा घर खोजो अभियान शुरु हुआ तो अडोस-पडोस के सेक्टरों के प्राँपर्टी डीलरों को खोजा, पहले जिन प्राँपर्टी डीलरों के माध्यम से किराये पर मकान लिये थे उन से भी मिले । एक साहब जो अग्रवाल प्राँपर्टी के नाम से घर में ही बने व्यावसायिक कार्यालय पर उपलब्ध रहते थे, असलियत में जल-कल विभाग में कार्यरत थे । तो उन्होने सपत्नीक हमारा ब्रैन-वाश करना शुरू कर दिया कई मकान दिखाये, एक-दो जमे भी पर जब तक पहुँचे तब तक उनका विक्रय-क्रम प्रारम्भ हो चुका था । कोई व्यस्त सडक से आती ट्र्कों की लोरियों से आक्रान्त था तो कोई इतने वीराने में बना था कि वहाँ रहने कि कल्पना करने से ही सिहरन होने लगी थी । कोई महँगा, कोई छोटा तो कोई २ कमरे की जगह में ही ३ कमरे की जगह निकालने की जुगत का शिकार हो गया था । हाँलाकि मैं नहीं खरीदता तो ऐसा नहीं कि वो बिकेंगे ही नहीं पर हमारे प्राँपर्टी डीलर साहब के पास हर मकान के बचाव और पक्ष में इतने और ऐसे तर्क थे कि हमारे दिमाग की नैया तो डोल ही जाती थी, पर ये श्रीमति जी की मति के ही चप्पू थे जो मंझधार से हमें किनारे ले आते थे । वो अक्सर अडिग ही रह्ती थीं पर हमें हर मकान ठीक सा ही लगने लगता था । खैर एक मकान पर थोड़ी बात जम गयी और पैसे-वैसे की भी बात चल निकली । हाँलाकि मकान हमारी औकात से थोडा बाहर ही बैठ रहा था पर अब हालत ऐसी हो गयी कि दिन-रात भैये के फोन पे फोन आने शुरू हो गये । हमारे ना-नुकुर के बावजूद एक दिन तो वे सपत्नीक हमारे घर प्रवचन के अन्शेड्युल्ड कार्यक्रम के साथ रात्रि के ९ बजे पधार गये । क्या बतायें कैसे उस दिन उनसे अगले दिन तक का वक्त सोचने के लिये माँगा । एक और बढिया चीज आज-कल उपलब्ध है मोबाइल, अब इस पर किसी से मना करना ज्यादा आसान है बजाय आमने-सामने के । सो, अगले दिन इसी ब्रह्मास्त्र का उपयोग करते हुए उनसे मना कर दिया गया । इस के बाद ऐसी राहत की साँस ली जैसे हम कोई बकरे हों और जि़बह होने से बाल-बाल बचे हों । इसके बाद उन साहब से तो कुट्टी ही हो गयी, नये "सौदे" आने बन्द हो गये । इस सारे क्रम में युद्ध के जैसी थकावट हो गयी और कुछ दिन तक तो हमारे घर खोजो अभियान पर ही ब्रेक लग गया ।
अब सोचा गया कि थोड़ी मेहनत Internet पर करते हैं क्या पता कि बात बन जाये । नाजानकार से बात करेंगे तो ये पिछला अध्याय दोबारा नहीं होगा । तो साहब बात फिर चल निकली, वही फोन-मोबाइल का ठन्डा पड़ा दौर दोबारा चालू हो गया लेकिन एक बार ग्रेटर नोएडा में मकान देख कर मन रम गया कि मकान तो यहीं लेना चाहिये । अब एक प्राँपर्टी डीलर साब जो ग्रेटर नोएडा में ही विराजमान थे Internet की एक साइट से सम्पर्क हो गया । उन्होने भी कई मकान दिखाये और एक मकान पर बात ठहर गयी, अब मकान-मालिक के दर्शन के लिये हम उद्यत थे पर सामने आये एक और प्राँपर्टी डीलर साहब, अब कागज़ वगैरह देख लिये गये, एक हमारे जानकार अधिवक्ता भाईसाब ने कागज़ों की जाँच-पड़्ताल कर ली थी । फ़िर आया क्रम पैसे का तो हमारे बस का तो हील-हुज़्ज़त था नहीं तो फिर जितने में बात शुरू हुई थी, उतने में ही जाकर ठहरी ।
अब १ महीने के युद्धस्तर के प्रयासों के चलते पिछले सप्ताह में पंजीकरण कार्यक्रम सम्पन्न हो ही गया । घर की चाबी भी मिल गयी और प्राँपर्टी डीलरों के प्रपन्चों की भी आगे के लिये जानकारी हो गयी ।
विशेष : ज्यादा गहरे में जाने से मैं बचना चाहता था, सो जो कुछ लिख पाया वो ही लिखा ।
Thursday, September 20, 2007
Sunday, September 16, 2007
मेरी पसन्द
-- मेरी पसन्दीदा --
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गज़ल १
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ग़म मिलें जितने खुशी का नाम दो,
दर्द ही को ज़िन्दगी का नाम दो ।
वो जुनूं था, जो मिला दर पर तुम्हें
मत इसे दीवानगी का नाम दो ॥
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मैं समझता हूं इन्हें मजबूरियां,
तुम इन्हें बेगानगी का नाम दो ।
सर झुका है कब से कदमों पे तेरे,
अब तो इस को बन्दगी का नाम दो ॥
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ज़ुस्तजू मैं उस की दर-दर घूमता,
आशिकी, बेचारगी का नाम दो ।
रो पडे़ औरों के ग़म में जिसकी आँख,
बस उसी को आदमी का नाम दो ॥
--
गज़ल २
--
कोई ताजा सितम ईज़ाद कीजे,
हमारे दिल को फिर बर्बाद कीजे ।
कहो तो जान दे दें जान तुम पर,
लबों से बस जरा इर्शाद कीजे ॥
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बहुत मायूस हैं सैयाद से हम,
कफ़स से मत हमें आज़ाद कीजे ।
नहीं बसती उजड़ कर दिल की बस्ती,
हमारे दिल को न बर्बाद कीजे ॥
--
शहर वीरान कर देते हो लेकिन,
कोई उजड़ा चमन आबाद कीजे ।
तुम्हें दुनिया से है फ़ुरसत कहाँ,
कभी हमको भी याद कर लीजे ॥
Sunday, May 27, 2007
कुछ और यादें !
तो और कुछ बातें जो पहले लिखने से रह गयी...........
हां तो ये वो वक्त था जब आपातकाल लग कर चुका था और जनता पार्टी का समय आया था । तब जो रिक्शे चुनाव प्रचार करने आते थे और उन पर एक बडा सा लाउड्स्पीकर लगा होता था और एक-दो लोग उसमें बैठ कर पर्चे बान्टते थे और कभी-कभी एक के हाथ में ढोलक होती थी वे रसिया बना कर पार्टी के लिये चुनाव प्रचार करते थे । हम लोग छोटे थे तो उन रिक्शों के पीछे भागते रहते थे और पर्चे इकट्ठे करते रहते थे । एक नारा अभी तक याद है "मोहर तुम्हारी कहां लगेगी, हलधर वाले खाने मैं " तब हमें इस का मतलब भी पता नहीं था पर गाते रहते थे बस ।
घर में खाना अन्गीठी पर बनता था और उस के लिये पत्थर वाले कोयले और लकडी के गट्टे चाहिये होते थे । हां, रात को गली में बाबू पटेटू वाला आता था वो अपने ठेले में बैठ कर ही पटेटू बनाता था, तो कभी कभी देसी घी उसे दे कर हम देसी घी के पटेटू बनवाते थे । ये सब खाना खाने के बाद होता था। रात में हम ऊपर छत पर ही सोते थे और पतंगों में उडने वाली कन्दीलों को देख कर बडा अच्छा लगता था ।
हां तो ये वो वक्त था जब आपातकाल लग कर चुका था और जनता पार्टी का समय आया था । तब जो रिक्शे चुनाव प्रचार करने आते थे और उन पर एक बडा सा लाउड्स्पीकर लगा होता था और एक-दो लोग उसमें बैठ कर पर्चे बान्टते थे और कभी-कभी एक के हाथ में ढोलक होती थी वे रसिया बना कर पार्टी के लिये चुनाव प्रचार करते थे । हम लोग छोटे थे तो उन रिक्शों के पीछे भागते रहते थे और पर्चे इकट्ठे करते रहते थे । एक नारा अभी तक याद है "मोहर तुम्हारी कहां लगेगी, हलधर वाले खाने मैं " तब हमें इस का मतलब भी पता नहीं था पर गाते रहते थे बस ।
घर में खाना अन्गीठी पर बनता था और उस के लिये पत्थर वाले कोयले और लकडी के गट्टे चाहिये होते थे । हां, रात को गली में बाबू पटेटू वाला आता था वो अपने ठेले में बैठ कर ही पटेटू बनाता था, तो कभी कभी देसी घी उसे दे कर हम देसी घी के पटेटू बनवाते थे । ये सब खाना खाने के बाद होता था। रात में हम ऊपर छत पर ही सोते थे और पतंगों में उडने वाली कन्दीलों को देख कर बडा अच्छा लगता था ।
Thursday, May 17, 2007
पुरानी यादें !
मैं हाथरस से ७-८ सालों से ही दूर हुआ हूं , और अभी कुछ समय पहले ही विदेश यात्रा भी कर के आया हूँ । जब विदेश में था, तो मुझे हाथरस की ज्यादा याद आई । तो कुछ ऐसी यादें जो हाथरस से जुडी हैं ।
जब हम छोटे थे (करीब ५-६ साल के) तो हाथरस में गर्मी की शामों में पानी का छिड्काव होता था, एक मशक वाला आता था चमडे की बडी सी थैली कन्धे पे डाल के और पास के कूंए से उस में पानी भर के फिर छिड्काव करता था । हम सब साथ के बच्चे उस के साथ साथ घूमते थे । साफ़ सफ़ाई का उस समय ज्यादा अच्छा इन्तजाम था, नगर पालिका का । दोनों वक्त नाली साफ़ होती थी, और दोनों वक्त सडक पर झाडू लगती थी, पिताजी बताते हैं कि उनके समय में तो पहली मंजिल पर भी पानी बिना मोटर के ही आ जाता था । सडक पर (हमारी गली में) ईंटों का खडंज़ा लगा था, जो कई जगहों से उधड गया था, तो बच्चे उस में पिल्ल बना कर अन्टा गोली खेलते थे । हांलांकि मैंने कभी अन्टे नहीं खेले मेरी माताजी को ये अच्छे नहीं लगते थे । गर्मी की शामों में अक्सर कूंए पर नहाते थे, घन्टों नहाते थे ।
जब छोटे ही थे तो नौदुर्गा का बडा इन्तज़ार रह्ता था । आठें और नौमी वाले दिन सुबह सुबह नहा कर तैय्यार हो जाते थे, फिर लोग बाग कन्या-लान्गुरा के लिये बुलाने आ जाते थे । वहां खाना तो एक-दो के यहां ही खा पाते थे पर दक्षिणा के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने की होड रह्ती थी । उस वक्त १० पैसे से लेकर ५० पैसे तक दक्षिणा में मिल जाते थे तो होड रहती थी कि किस के पास कितने पैसे इकट्ठे हुए । दो रुपए से हम राजा हो जाते थे, मन पसन्द टौफ़ी, चिरबे, चने वगैरह ।
होली के बाद के दिनों में हाथरस में मेले निकालने की परम्परा रही है । यहां समाज के वर्ग अपना-अपना मेला निकालते हैं । एक दिन बारह्सैनीयों का तो दूसरे दिन अग्रवालों का, एक दिन ब्राह्मणों का तो दूसरे दिन ठठेरों का । जब बच्चे थे तो शाम से ही तय्यार हो कर पिताजी के एक दोस्त की दुकान पर चढ जाते थे और मेले का आनन्द लेते थे ।
गर्मी की दुपहरी में किल-किल-कान्टी खेलते थे, बडा ही मज़ेदार खेल होता था और घरों में ही अन्दर होता था । मगर खेलते में ये पता नहीं होता था कि किस के घर में खेल रहे हैं । उन घरों में अब जाने की हिम्मत नहीं है, पर उस समय ये सब नहीं था, अपनी गली के सब घरों में मैं खेला हूँ । आज ये बात विश्वसनीय नहीं लगती ।
थोडा बडे होने पर रात में कबड्डी या "राम चन्द जानकी, जय बोलो हनुमान की" करते हुए गलियों में हुड्दन्ग मचाते रह्ते थे । एक बच्चा राम बन कर दूसरे बच्चे (हनुमान) के कन्धों पर बैठ जाता था और घूमते थे । हां ! बच्चे खोने की समस्या का यहां अच्छा इलाज़ था, एक दुकान थी "चन्दो साइकिल वाले की", जब भी बच्चा खो जाये सीधे वहां पहुंच जाओ बच्चा मिल जाता था । मतलब किसी को कोई बच्चा खोया हुआ मिल गया तो वो उसे सीधे "चन्दो साइकिल वाले" की दुकान पर पहुन्चा देता था । चन्दो साइकिल वाले के पास एक रिक्शा था तो अगर बच्चे को लेने कोई नहीं आता था तो वह रिक्शा में माइक लगा कर गलियों में घूमता था । यह सब वह निःस्वार्थ करता था, किसी ने खुशी में कुछ दे दिया तो दे दिया, वह मांगता नहीं था । मेरा छोटा भाई भी एक बार खो गया था, वहीं से मिला था ।
गर्मी की दुपहरी में रबडी-जाम वाला आता था, मेरे बाबा को वो पसन्द थी तो अक्सर रबडी जाम से ठन्डक लेते थे । घर में ही फ़ाल्से, बेल का शर्बत, सत्तू का मीठा घोल बर्फ़ डाल के, या ठन्डाई, लस्सी ये सब ठन्डक देने वाले साबित होते थे । फ़ाल्से के शर्बत की ठन्डक का तो जवाब ही नहीं हैं, बिना बर्फ़ के भी गर्मी में ठन्डक का एह्सास होता था ।
आश्चर्य होगा कि जब १५-१६ साल की उम्र में हम ने रेस्टौरेट में जाना शुरू किया था, और डर लगता था कि कोई देख ना ले ।
आज के हिसाब से अगर इसे देखें तो सोचना पडता है कि हम वक्त के साथ आगे जा रहे हैं या पीछे ?
जब हम छोटे थे (करीब ५-६ साल के) तो हाथरस में गर्मी की शामों में पानी का छिड्काव होता था, एक मशक वाला आता था चमडे की बडी सी थैली कन्धे पे डाल के और पास के कूंए से उस में पानी भर के फिर छिड्काव करता था । हम सब साथ के बच्चे उस के साथ साथ घूमते थे । साफ़ सफ़ाई का उस समय ज्यादा अच्छा इन्तजाम था, नगर पालिका का । दोनों वक्त नाली साफ़ होती थी, और दोनों वक्त सडक पर झाडू लगती थी, पिताजी बताते हैं कि उनके समय में तो पहली मंजिल पर भी पानी बिना मोटर के ही आ जाता था । सडक पर (हमारी गली में) ईंटों का खडंज़ा लगा था, जो कई जगहों से उधड गया था, तो बच्चे उस में पिल्ल बना कर अन्टा गोली खेलते थे । हांलांकि मैंने कभी अन्टे नहीं खेले मेरी माताजी को ये अच्छे नहीं लगते थे । गर्मी की शामों में अक्सर कूंए पर नहाते थे, घन्टों नहाते थे ।
जब छोटे ही थे तो नौदुर्गा का बडा इन्तज़ार रह्ता था । आठें और नौमी वाले दिन सुबह सुबह नहा कर तैय्यार हो जाते थे, फिर लोग बाग कन्या-लान्गुरा के लिये बुलाने आ जाते थे । वहां खाना तो एक-दो के यहां ही खा पाते थे पर दक्षिणा के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने की होड रह्ती थी । उस वक्त १० पैसे से लेकर ५० पैसे तक दक्षिणा में मिल जाते थे तो होड रहती थी कि किस के पास कितने पैसे इकट्ठे हुए । दो रुपए से हम राजा हो जाते थे, मन पसन्द टौफ़ी, चिरबे, चने वगैरह ।
होली के बाद के दिनों में हाथरस में मेले निकालने की परम्परा रही है । यहां समाज के वर्ग अपना-अपना मेला निकालते हैं । एक दिन बारह्सैनीयों का तो दूसरे दिन अग्रवालों का, एक दिन ब्राह्मणों का तो दूसरे दिन ठठेरों का । जब बच्चे थे तो शाम से ही तय्यार हो कर पिताजी के एक दोस्त की दुकान पर चढ जाते थे और मेले का आनन्द लेते थे ।
गर्मी की दुपहरी में किल-किल-कान्टी खेलते थे, बडा ही मज़ेदार खेल होता था और घरों में ही अन्दर होता था । मगर खेलते में ये पता नहीं होता था कि किस के घर में खेल रहे हैं । उन घरों में अब जाने की हिम्मत नहीं है, पर उस समय ये सब नहीं था, अपनी गली के सब घरों में मैं खेला हूँ । आज ये बात विश्वसनीय नहीं लगती ।
थोडा बडे होने पर रात में कबड्डी या "राम चन्द जानकी, जय बोलो हनुमान की" करते हुए गलियों में हुड्दन्ग मचाते रह्ते थे । एक बच्चा राम बन कर दूसरे बच्चे (हनुमान) के कन्धों पर बैठ जाता था और घूमते थे । हां ! बच्चे खोने की समस्या का यहां अच्छा इलाज़ था, एक दुकान थी "चन्दो साइकिल वाले की", जब भी बच्चा खो जाये सीधे वहां पहुंच जाओ बच्चा मिल जाता था । मतलब किसी को कोई बच्चा खोया हुआ मिल गया तो वो उसे सीधे "चन्दो साइकिल वाले" की दुकान पर पहुन्चा देता था । चन्दो साइकिल वाले के पास एक रिक्शा था तो अगर बच्चे को लेने कोई नहीं आता था तो वह रिक्शा में माइक लगा कर गलियों में घूमता था । यह सब वह निःस्वार्थ करता था, किसी ने खुशी में कुछ दे दिया तो दे दिया, वह मांगता नहीं था । मेरा छोटा भाई भी एक बार खो गया था, वहीं से मिला था ।
गर्मी की दुपहरी में रबडी-जाम वाला आता था, मेरे बाबा को वो पसन्द थी तो अक्सर रबडी जाम से ठन्डक लेते थे । घर में ही फ़ाल्से, बेल का शर्बत, सत्तू का मीठा घोल बर्फ़ डाल के, या ठन्डाई, लस्सी ये सब ठन्डक देने वाले साबित होते थे । फ़ाल्से के शर्बत की ठन्डक का तो जवाब ही नहीं हैं, बिना बर्फ़ के भी गर्मी में ठन्डक का एह्सास होता था ।
आश्चर्य होगा कि जब १५-१६ साल की उम्र में हम ने रेस्टौरेट में जाना शुरू किया था, और डर लगता था कि कोई देख ना ले ।
आज के हिसाब से अगर इसे देखें तो सोचना पडता है कि हम वक्त के साथ आगे जा रहे हैं या पीछे ?
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