तो और कुछ बातें जो पहले लिखने से रह गयी...........
हां तो ये वो वक्त था जब आपातकाल लग कर चुका था और जनता पार्टी का समय आया था । तब जो रिक्शे चुनाव प्रचार करने आते थे और उन पर एक बडा सा लाउड्स्पीकर लगा होता था और एक-दो लोग उसमें बैठ कर पर्चे बान्टते थे और कभी-कभी एक के हाथ में ढोलक होती थी वे रसिया बना कर पार्टी के लिये चुनाव प्रचार करते थे । हम लोग छोटे थे तो उन रिक्शों के पीछे भागते रहते थे और पर्चे इकट्ठे करते रहते थे । एक नारा अभी तक याद है "मोहर तुम्हारी कहां लगेगी, हलधर वाले खाने मैं " तब हमें इस का मतलब भी पता नहीं था पर गाते रहते थे बस ।
घर में खाना अन्गीठी पर बनता था और उस के लिये पत्थर वाले कोयले और लकडी के गट्टे चाहिये होते थे । हां, रात को गली में बाबू पटेटू वाला आता था वो अपने ठेले में बैठ कर ही पटेटू बनाता था, तो कभी कभी देसी घी उसे दे कर हम देसी घी के पटेटू बनवाते थे । ये सब खाना खाने के बाद होता था। रात में हम ऊपर छत पर ही सोते थे और पतंगों में उडने वाली कन्दीलों को देख कर बडा अच्छा लगता था ।
No comments:
Post a Comment