Thursday, May 17, 2007

पुरानी यादें !

मैं हाथरस से ७-८ सालों से ही दूर हुआ हूं , और अभी कुछ समय पहले ही विदेश यात्रा भी कर के आया हूँ । जब विदेश में था, तो मुझे हाथरस की ज्यादा याद आई । तो कुछ ऐसी यादें जो हाथरस से जुडी हैं ।

जब हम छोटे थे (करीब ५-६ साल के) तो हाथरस में गर्मी की शामों में पानी का छिड्काव होता था, एक मशक वाला आता था चमडे की बडी सी थैली कन्धे पे डाल के और पास के कूंए से उस में पानी भर के फिर छिड्काव करता था । हम सब साथ के बच्चे उस के साथ साथ घूमते थे । साफ़ सफ़ाई का उस समय ज्यादा अच्छा इन्तजाम था, नगर पालिका का । दोनों वक्त नाली साफ़ होती थी, और दोनों वक्त सडक पर झाडू लगती थी, पिताजी बताते हैं कि उनके समय में तो पहली मंजिल पर भी पानी बिना मोटर के ही आ जाता था । सडक पर (हमारी गली में) ईंटों का खडंज़ा लगा था, जो कई जगहों से उधड गया था, तो बच्चे उस में पिल्ल बना कर अन्टा गोली खेलते थे । हांलांकि मैंने कभी अन्टे नहीं खेले मेरी माताजी को ये अच्छे नहीं लगते थे । गर्मी की शामों में अक्सर कूंए पर नहाते थे, घन्टों नहाते थे ।

जब छोटे ही थे तो नौदुर्गा का बडा इन्तज़ार रह्ता था । आठें और नौमी वाले दिन सुबह सुबह नहा कर तैय्यार हो जाते थे, फिर लोग बाग कन्या-लान्गुरा के लिये बुलाने आ जाते थे । वहां खाना तो एक-दो के यहां ही खा पाते थे पर दक्षिणा के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने की होड रह्ती थी । उस वक्त १० पैसे से लेकर ५० पैसे तक दक्षिणा में मिल जाते थे तो होड रहती थी कि किस के पास कितने पैसे इकट्ठे हुए । दो रुपए से हम राजा हो जाते थे, मन पसन्द टौफ़ी, चिरबे, चने वगैरह ।

होली के बाद के दिनों में हाथरस में मेले निकालने की परम्परा रही है । यहां समाज के वर्ग अपना-अपना मेला निकालते हैं । एक दिन बारह्सैनीयों का तो दूसरे दिन अग्रवालों का, एक दिन ब्राह्मणों का तो दूसरे दिन ठठेरों का । जब बच्चे थे तो शाम से ही तय्यार हो कर पिताजी के एक दोस्त की दुकान पर चढ जाते थे और मेले का आनन्द लेते थे ।

गर्मी की दुपहरी में किल-किल-कान्टी खेलते थे, बडा ही मज़ेदार खेल होता था और घरों में ही अन्दर होता था । मगर खेलते में ये पता नहीं होता था कि किस के घर में खेल रहे हैं । उन घरों में अब जाने की हिम्मत नहीं है, पर उस समय ये सब नहीं था, अपनी गली के सब घरों में मैं खेला हूँ । आज ये बात विश्वसनीय नहीं लगती ।

थोडा बडे होने पर रात में कबड्डी या "राम चन्द जानकी, जय बोलो हनुमान की" करते हुए गलियों में हुड्दन्ग मचाते रह्ते थे । एक बच्चा राम बन कर दूसरे बच्चे (हनुमान) के कन्धों पर बैठ जाता था और घूमते थे । हां ! बच्चे खोने की समस्या का यहां अच्छा इलाज़ था, एक दुकान थी "चन्दो साइकिल वाले की", जब भी बच्चा खो जाये सीधे वहां पहुंच जाओ बच्चा मिल जाता था । मतलब किसी को कोई बच्चा खोया हुआ मिल गया तो वो उसे सीधे "चन्दो साइकिल वाले" की दुकान पर पहुन्चा देता था । चन्दो साइकिल वाले के पास एक रिक्शा था तो अगर बच्चे को लेने कोई नहीं आता था तो वह रिक्शा में माइक लगा कर गलियों में घूमता था । यह सब वह निःस्वार्थ करता था, किसी ने खुशी में कुछ दे दिया तो दे दिया, वह मांगता नहीं था । मेरा छोटा भाई भी एक बार खो गया था, वहीं से मिला था ।

गर्मी की दुपहरी में रबडी-जाम वाला आता था, मेरे बाबा को वो पसन्द थी तो अक्सर रबडी जाम से ठन्डक लेते थे । घर में ही फ़ाल्से, बेल का शर्बत, सत्तू का मीठा घोल बर्फ़ डाल के, या ठन्डाई, लस्सी ये सब ठन्डक देने वाले साबित होते थे । फ़ाल्से के शर्बत की ठन्डक का तो जवाब ही नहीं हैं, बिना बर्फ़ के भी गर्मी में ठन्डक का एह्सास होता था ।

आश्चर्य होगा कि जब १५-१६ साल की उम्र में हम ने रेस्टौरेट में जाना शुरू किया था, और डर लगता था कि कोई देख ना ले ।

आज के हिसाब से अगर इसे देखें तो सोचना पडता है कि हम वक्त के साथ आगे जा रहे हैं या पीछे ?

1 comment:

Abhilakshya Placement Services (APS) said...

Jab Main gujrat main posted tha to Hathras ki bahut jyada yaad hoti thi. 3 mahino se main apne hathras nahi gaya tha. Aur wo sari cheezen yaad aati thi bachpan ki jo aapne yahan likhi hai. Main apni ardhangini ko hathras ke bare main bataya karta tha ki kaise wahan rabri jam wale baba aate the aur ham log baithak main baith kar khate the. Aap ghar main thandai banate the aur bel ka ras wo sab amin use batata tha. Ek din to main ro hi diya, bahut zor se rona aaya mujhe, aur main hathras apne ghar par phone laga kar apni mate aur pitaji se baat ki.Us din ke baad se mujhe laga ki mujhe gujrat chod dena chahiye, aur shuru hua job searching ka phir wahi khel, aur ab main jaipur aa gaya hoon, ab main hathras to ja sakta hoon,jab bhi yaad aaye.
Aapka lekh padh kar phir se ankhe gili ho gai, ek to sari yaaden upar se itna accha sahityik likhne ka tarika, aisa lag raha tha ki aankhen nahi dil padh raha ho. Isme main ek baat aur share karunga, ki garmi ki raat main sab chat par khat par sote the. Aap radio par purane gaane lagate the jo bahut acche lagte the.Us waqt aapko music ka bahut shauk tha. Aap gaane late the aur vediocon ke 2 in 1 par bajate the. Par pata nahi kab main bhi un gaano ka shaukin ho gaya.Aaj mere paas lagbhag wo sare gaane hai jo aap tab 2 in 1 par bajate the. Jaise aai milan ki raat, sadak, Anuradha paudwal ki aawaz aapko bahut pasand thi, aapne ek baar kaha tha ki ye dusri latamangeshkar hai. Jab aashiqui aayi hi thi.
Aap ka blog padh kar bahut accha laga. Ise continue rakhiyega, accha lagega.

Abhinandan Sharma