Saturday, September 22, 2007

ये प्राँपर्टी डीलर भैये

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कुछ दिनों से अचल सम्पत्ती के फ़ेर में पड़े थे । ये कोशिश कर रहे थे कि कोई मकान क जुगाड़ हो जाये, जिससे ये रोज-रोज मकान बदलने का झंझट और बड़े-बुज़ुर्गों की रोज-रोज की "मकान ले लो, घर बना लो " की नसीहतों से चैन मिले । भगवत्कृपा से इतना हो गया है कि घर के बारे में सोच भी सकते हैं । तो साहब, बस हर शनिवार और रविवार घर और मकान के नाम हो गया; गाज़ियाबाद में वसुन्धरा से लेकर और ग्रेटर नोएडा तक जाने कितने चक्कर लगे कितने लोगों से मिले । इसी क्रम में एक विशेष किस्म के लोगों से मुलाकात होने लगी जिन्हें ये चिट्ठा मैंने समर्पित किया है अर्थात प्राँपर्टी डीलर ।

जब हमारा घर खोजो अभियान शुरु हुआ तो अडोस-पडोस के सेक्टरों के प्राँपर्टी डीलरों को खोजा, पहले जिन प्राँपर्टी डीलरों के माध्यम से किराये पर मकान लिये थे उन से भी मिले । एक साहब जो अग्रवाल प्राँपर्टी के नाम से घर में ही बने व्यावसायिक कार्यालय पर उपलब्ध रहते थे, असलियत में जल-कल विभाग में कार्यरत थे । तो उन्होने सपत्नीक हमारा ब्रैन-वाश करना शुरू कर दिया कई मकान दिखाये, एक-दो जमे भी पर जब तक पहुँचे तब तक उनका विक्रय-क्रम प्रारम्भ हो चुका था । कोई व्यस्त सडक से आती ट्र्कों की लोरियों से आक्रान्त था तो कोई इतने वीराने में बना था कि वहाँ रहने कि कल्पना करने से ही सिहरन होने लगी थी । कोई महँगा, कोई छोटा तो कोई २ कमरे की जगह में ही ३ कमरे की जगह निकालने की जुगत का शिकार हो गया था । हाँलाकि मैं नहीं खरीदता तो ऐसा नहीं कि वो बिकेंगे ही नहीं पर हमारे प्राँपर्टी डीलर साहब के पास हर मकान के बचाव और पक्ष में इतने और ऐसे तर्क थे कि हमारे दिमाग की नैया तो डोल ही जाती थी, पर ये श्रीमति जी की मति के ही चप्पू थे जो मंझधार से हमें किनारे ले आते थे । वो अक्सर अडिग ही रह्ती थीं पर हमें हर मकान ठीक सा ही लगने लगता था । खैर एक मकान पर थोड़ी बात जम गयी और पैसे-वैसे की भी बात चल निकली । हाँलाकि मकान हमारी औकात से थोडा बाहर ही बैठ रहा था पर अब हालत ऐसी हो गयी कि दिन-रात भैये के फोन पे फोन आने शुरू हो गये । हमारे ना-नुकुर के बावजूद एक दिन तो वे सपत्नीक हमारे घर प्रवचन के अन्शेड्युल्ड कार्यक्रम के साथ रात्रि के ९ बजे पधार गये । क्या बतायें कैसे उस दिन उनसे अगले दिन तक का वक्त सोचने के लिये माँगा । एक और बढिया चीज आज-कल उपलब्ध है मोबाइल, अब इस पर किसी से मना करना ज्यादा आसान है बजाय आमने-सामने के । सो, अगले दिन इसी ब्रह्मास्त्र का उपयोग करते हुए उनसे मना कर दिया गया । इस के बाद ऐसी राहत की साँस ली जैसे हम कोई बकरे हों और जि़बह होने से बाल-बाल बचे हों । इसके बाद उन साहब से तो कुट्टी ही हो गयी, नये "सौदे" आने बन्द हो गये । इस सारे क्रम में युद्ध के जैसी थकावट हो गयी और कुछ दिन तक तो हमारे घर खोजो अभियान पर ही ब्रेक लग गया ।
अब सोचा गया कि थोड़ी मेहनत Internet पर करते हैं क्या पता कि बात बन जाये । नाजानकार से बात करेंगे तो ये पिछला अध्याय दोबारा नहीं होगा । तो साहब बात फिर चल निकली, वही फोन-मोबाइल का ठन्डा पड़ा दौर दोबारा चालू हो गया लेकिन एक बार ग्रेटर नोएडा में मकान देख कर मन रम गया कि मकान तो यहीं लेना चाहिये । अब एक प्राँपर्टी डीलर साब जो ग्रेटर नोएडा में ही विराजमान थे Internet की एक साइट से सम्पर्क हो गया । उन्होने भी कई मकान दिखाये और एक मकान पर बात ठहर गयी, अब मकान-मालिक के दर्शन के लिये हम उद्यत थे पर सामने आये एक और प्राँपर्टी डीलर साहब, अब कागज़ वगैरह देख लिये गये, एक हमारे जानकार अधिवक्ता भाईसाब ने कागज़ों की जाँच-पड़्ताल कर ली थी । फ़िर आया क्रम पैसे का तो हमारे बस का तो हील-हुज़्ज़त था नहीं तो फिर जितने में बात शुरू हुई थी, उतने में ही जाकर ठहरी ।

अब १ महीने के युद्धस्तर के प्रयासों के चलते पिछले सप्ताह में पंजीकरण कार्यक्रम सम्पन्न हो ही गया । घर की चाबी भी मिल गयी और प्राँपर्टी डीलरों के प्रपन्चों की भी आगे के लिये जानकारी हो गयी ।

विशेष : ज्यादा गहरे में जाने से मैं बचना चाहता था, सो जो कुछ लिख पाया वो ही लिखा ।

Thursday, September 20, 2007

Sunday, September 16, 2007

मेरी पसन्द

-- मेरी पसन्दीदा --
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गज़ल १
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ग़म मिलें जितने खुशी का नाम दो,
दर्द ही को ज़िन्दगी का नाम दो ।
वो जुनूं था, जो मिला दर पर तुम्हें
मत इसे दीवानगी का नाम दो ॥
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मैं समझता हूं इन्हें मजबूरियां,
तुम इन्हें बेगानगी का नाम दो ।
सर झुका है कब से कदमों पे तेरे,
अब तो इस को बन्दगी का नाम दो ॥
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ज़ुस्तजू मैं उस की दर-दर घूमता,
आशिकी, बेचारगी का नाम दो ।
रो पडे़ औरों के ग़म में जिसकी आँख,
बस उसी को आदमी का नाम दो ॥
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गज़ल २
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कोई ताजा सितम ईज़ाद कीजे,
हमारे दिल को फिर बर्बाद कीजे ।
कहो तो जान दे दें जान तुम पर,
लबों से बस जरा इर्शाद कीजे ॥
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बहुत मायूस हैं सैयाद से हम,
कफ़स से मत हमें आज़ाद कीजे ।
नहीं बसती उजड़ कर दिल की बस्ती,
हमारे दिल को न बर्बाद कीजे ॥
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शहर वीरान कर देते हो लेकिन,
कोई उजड़ा चमन आबाद कीजे ।
तुम्हें दुनिया से है फ़ुरसत कहाँ,
कभी हमको भी याद कर लीजे ॥