तो और कुछ बातें जो पहले लिखने से रह गयी...........
हां तो ये वो वक्त था जब आपातकाल लग कर चुका था और जनता पार्टी का समय आया था । तब जो रिक्शे चुनाव प्रचार करने आते थे और उन पर एक बडा सा लाउड्स्पीकर लगा होता था और एक-दो लोग उसमें बैठ कर पर्चे बान्टते थे और कभी-कभी एक के हाथ में ढोलक होती थी वे रसिया बना कर पार्टी के लिये चुनाव प्रचार करते थे । हम लोग छोटे थे तो उन रिक्शों के पीछे भागते रहते थे और पर्चे इकट्ठे करते रहते थे । एक नारा अभी तक याद है "मोहर तुम्हारी कहां लगेगी, हलधर वाले खाने मैं " तब हमें इस का मतलब भी पता नहीं था पर गाते रहते थे बस ।
घर में खाना अन्गीठी पर बनता था और उस के लिये पत्थर वाले कोयले और लकडी के गट्टे चाहिये होते थे । हां, रात को गली में बाबू पटेटू वाला आता था वो अपने ठेले में बैठ कर ही पटेटू बनाता था, तो कभी कभी देसी घी उसे दे कर हम देसी घी के पटेटू बनवाते थे । ये सब खाना खाने के बाद होता था। रात में हम ऊपर छत पर ही सोते थे और पतंगों में उडने वाली कन्दीलों को देख कर बडा अच्छा लगता था ।
Sunday, May 27, 2007
Thursday, May 17, 2007
पुरानी यादें !
मैं हाथरस से ७-८ सालों से ही दूर हुआ हूं , और अभी कुछ समय पहले ही विदेश यात्रा भी कर के आया हूँ । जब विदेश में था, तो मुझे हाथरस की ज्यादा याद आई । तो कुछ ऐसी यादें जो हाथरस से जुडी हैं ।
जब हम छोटे थे (करीब ५-६ साल के) तो हाथरस में गर्मी की शामों में पानी का छिड्काव होता था, एक मशक वाला आता था चमडे की बडी सी थैली कन्धे पे डाल के और पास के कूंए से उस में पानी भर के फिर छिड्काव करता था । हम सब साथ के बच्चे उस के साथ साथ घूमते थे । साफ़ सफ़ाई का उस समय ज्यादा अच्छा इन्तजाम था, नगर पालिका का । दोनों वक्त नाली साफ़ होती थी, और दोनों वक्त सडक पर झाडू लगती थी, पिताजी बताते हैं कि उनके समय में तो पहली मंजिल पर भी पानी बिना मोटर के ही आ जाता था । सडक पर (हमारी गली में) ईंटों का खडंज़ा लगा था, जो कई जगहों से उधड गया था, तो बच्चे उस में पिल्ल बना कर अन्टा गोली खेलते थे । हांलांकि मैंने कभी अन्टे नहीं खेले मेरी माताजी को ये अच्छे नहीं लगते थे । गर्मी की शामों में अक्सर कूंए पर नहाते थे, घन्टों नहाते थे ।
जब छोटे ही थे तो नौदुर्गा का बडा इन्तज़ार रह्ता था । आठें और नौमी वाले दिन सुबह सुबह नहा कर तैय्यार हो जाते थे, फिर लोग बाग कन्या-लान्गुरा के लिये बुलाने आ जाते थे । वहां खाना तो एक-दो के यहां ही खा पाते थे पर दक्षिणा के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने की होड रह्ती थी । उस वक्त १० पैसे से लेकर ५० पैसे तक दक्षिणा में मिल जाते थे तो होड रहती थी कि किस के पास कितने पैसे इकट्ठे हुए । दो रुपए से हम राजा हो जाते थे, मन पसन्द टौफ़ी, चिरबे, चने वगैरह ।
होली के बाद के दिनों में हाथरस में मेले निकालने की परम्परा रही है । यहां समाज के वर्ग अपना-अपना मेला निकालते हैं । एक दिन बारह्सैनीयों का तो दूसरे दिन अग्रवालों का, एक दिन ब्राह्मणों का तो दूसरे दिन ठठेरों का । जब बच्चे थे तो शाम से ही तय्यार हो कर पिताजी के एक दोस्त की दुकान पर चढ जाते थे और मेले का आनन्द लेते थे ।
गर्मी की दुपहरी में किल-किल-कान्टी खेलते थे, बडा ही मज़ेदार खेल होता था और घरों में ही अन्दर होता था । मगर खेलते में ये पता नहीं होता था कि किस के घर में खेल रहे हैं । उन घरों में अब जाने की हिम्मत नहीं है, पर उस समय ये सब नहीं था, अपनी गली के सब घरों में मैं खेला हूँ । आज ये बात विश्वसनीय नहीं लगती ।
थोडा बडे होने पर रात में कबड्डी या "राम चन्द जानकी, जय बोलो हनुमान की" करते हुए गलियों में हुड्दन्ग मचाते रह्ते थे । एक बच्चा राम बन कर दूसरे बच्चे (हनुमान) के कन्धों पर बैठ जाता था और घूमते थे । हां ! बच्चे खोने की समस्या का यहां अच्छा इलाज़ था, एक दुकान थी "चन्दो साइकिल वाले की", जब भी बच्चा खो जाये सीधे वहां पहुंच जाओ बच्चा मिल जाता था । मतलब किसी को कोई बच्चा खोया हुआ मिल गया तो वो उसे सीधे "चन्दो साइकिल वाले" की दुकान पर पहुन्चा देता था । चन्दो साइकिल वाले के पास एक रिक्शा था तो अगर बच्चे को लेने कोई नहीं आता था तो वह रिक्शा में माइक लगा कर गलियों में घूमता था । यह सब वह निःस्वार्थ करता था, किसी ने खुशी में कुछ दे दिया तो दे दिया, वह मांगता नहीं था । मेरा छोटा भाई भी एक बार खो गया था, वहीं से मिला था ।
गर्मी की दुपहरी में रबडी-जाम वाला आता था, मेरे बाबा को वो पसन्द थी तो अक्सर रबडी जाम से ठन्डक लेते थे । घर में ही फ़ाल्से, बेल का शर्बत, सत्तू का मीठा घोल बर्फ़ डाल के, या ठन्डाई, लस्सी ये सब ठन्डक देने वाले साबित होते थे । फ़ाल्से के शर्बत की ठन्डक का तो जवाब ही नहीं हैं, बिना बर्फ़ के भी गर्मी में ठन्डक का एह्सास होता था ।
आश्चर्य होगा कि जब १५-१६ साल की उम्र में हम ने रेस्टौरेट में जाना शुरू किया था, और डर लगता था कि कोई देख ना ले ।
आज के हिसाब से अगर इसे देखें तो सोचना पडता है कि हम वक्त के साथ आगे जा रहे हैं या पीछे ?
जब हम छोटे थे (करीब ५-६ साल के) तो हाथरस में गर्मी की शामों में पानी का छिड्काव होता था, एक मशक वाला आता था चमडे की बडी सी थैली कन्धे पे डाल के और पास के कूंए से उस में पानी भर के फिर छिड्काव करता था । हम सब साथ के बच्चे उस के साथ साथ घूमते थे । साफ़ सफ़ाई का उस समय ज्यादा अच्छा इन्तजाम था, नगर पालिका का । दोनों वक्त नाली साफ़ होती थी, और दोनों वक्त सडक पर झाडू लगती थी, पिताजी बताते हैं कि उनके समय में तो पहली मंजिल पर भी पानी बिना मोटर के ही आ जाता था । सडक पर (हमारी गली में) ईंटों का खडंज़ा लगा था, जो कई जगहों से उधड गया था, तो बच्चे उस में पिल्ल बना कर अन्टा गोली खेलते थे । हांलांकि मैंने कभी अन्टे नहीं खेले मेरी माताजी को ये अच्छे नहीं लगते थे । गर्मी की शामों में अक्सर कूंए पर नहाते थे, घन्टों नहाते थे ।
जब छोटे ही थे तो नौदुर्गा का बडा इन्तज़ार रह्ता था । आठें और नौमी वाले दिन सुबह सुबह नहा कर तैय्यार हो जाते थे, फिर लोग बाग कन्या-लान्गुरा के लिये बुलाने आ जाते थे । वहां खाना तो एक-दो के यहां ही खा पाते थे पर दक्षिणा के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा घरों में जाने की होड रह्ती थी । उस वक्त १० पैसे से लेकर ५० पैसे तक दक्षिणा में मिल जाते थे तो होड रहती थी कि किस के पास कितने पैसे इकट्ठे हुए । दो रुपए से हम राजा हो जाते थे, मन पसन्द टौफ़ी, चिरबे, चने वगैरह ।
होली के बाद के दिनों में हाथरस में मेले निकालने की परम्परा रही है । यहां समाज के वर्ग अपना-अपना मेला निकालते हैं । एक दिन बारह्सैनीयों का तो दूसरे दिन अग्रवालों का, एक दिन ब्राह्मणों का तो दूसरे दिन ठठेरों का । जब बच्चे थे तो शाम से ही तय्यार हो कर पिताजी के एक दोस्त की दुकान पर चढ जाते थे और मेले का आनन्द लेते थे ।
गर्मी की दुपहरी में किल-किल-कान्टी खेलते थे, बडा ही मज़ेदार खेल होता था और घरों में ही अन्दर होता था । मगर खेलते में ये पता नहीं होता था कि किस के घर में खेल रहे हैं । उन घरों में अब जाने की हिम्मत नहीं है, पर उस समय ये सब नहीं था, अपनी गली के सब घरों में मैं खेला हूँ । आज ये बात विश्वसनीय नहीं लगती ।
थोडा बडे होने पर रात में कबड्डी या "राम चन्द जानकी, जय बोलो हनुमान की" करते हुए गलियों में हुड्दन्ग मचाते रह्ते थे । एक बच्चा राम बन कर दूसरे बच्चे (हनुमान) के कन्धों पर बैठ जाता था और घूमते थे । हां ! बच्चे खोने की समस्या का यहां अच्छा इलाज़ था, एक दुकान थी "चन्दो साइकिल वाले की", जब भी बच्चा खो जाये सीधे वहां पहुंच जाओ बच्चा मिल जाता था । मतलब किसी को कोई बच्चा खोया हुआ मिल गया तो वो उसे सीधे "चन्दो साइकिल वाले" की दुकान पर पहुन्चा देता था । चन्दो साइकिल वाले के पास एक रिक्शा था तो अगर बच्चे को लेने कोई नहीं आता था तो वह रिक्शा में माइक लगा कर गलियों में घूमता था । यह सब वह निःस्वार्थ करता था, किसी ने खुशी में कुछ दे दिया तो दे दिया, वह मांगता नहीं था । मेरा छोटा भाई भी एक बार खो गया था, वहीं से मिला था ।
गर्मी की दुपहरी में रबडी-जाम वाला आता था, मेरे बाबा को वो पसन्द थी तो अक्सर रबडी जाम से ठन्डक लेते थे । घर में ही फ़ाल्से, बेल का शर्बत, सत्तू का मीठा घोल बर्फ़ डाल के, या ठन्डाई, लस्सी ये सब ठन्डक देने वाले साबित होते थे । फ़ाल्से के शर्बत की ठन्डक का तो जवाब ही नहीं हैं, बिना बर्फ़ के भी गर्मी में ठन्डक का एह्सास होता था ।
आश्चर्य होगा कि जब १५-१६ साल की उम्र में हम ने रेस्टौरेट में जाना शुरू किया था, और डर लगता था कि कोई देख ना ले ।
आज के हिसाब से अगर इसे देखें तो सोचना पडता है कि हम वक्त के साथ आगे जा रहे हैं या पीछे ?
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